एह्शाश
नहीं जमीं मुठ्ठी भर तो क्या.. सपनों का आकाश बहुत है ,
उड़ पाऊं कभी न लेकिन पंखों का आकाश बहुत है ..
यूं तो जुड़ते ओउर बिछुड़ते हैं कई हमराह
मगर साथ चल रहा अब तक मेरे बस मेरा विश्वाश बहुत है ...
क्यों हों निराश-2जो कोयल इस बार न कूंकी बगिया में ,
गुजर गया ये मौसम तो क्या जीवन में मधुमाश बहुत है ..
मिट जाते हैं साक्ष्य मगर एह्शाश शेष रह जाते हैं .
खंडहरों से झांक रहा महलों का इतिहाश बहुत है ,
दर्द दबा लेना अन्तर में इतना सहज नहीं होता
साँझ dhale aksar हो जाता मेरा मन उदाश बहुत है..
खामोंशी की फांद दीवारें ,तन्हाई के सायों में..
डोर पकड़ सुपधियों के आता कोई मन के पास बहुत है ,
तुला हुआ जीवन वचनों में ,कदम बंधें संकल्पों में
kaise लौटूं अभी अयोध्या शेष अभी वन्वाश बहुत है ......
Copyright ©2008 vivek pandey
Copyright ©2008 vivek pandey