Friday, May 7, 2010

Jeevan Ek Sangharsh hai...


जीवन के इस पनघट पर 

मैं प्यासा कंठ लिए हूँ.. 


अंतर मे सागर उमड़ा है 

बातें गहरी से भी हैं गहरी 

अपनी व्यथा कहूँ तो किससे 

 कौन सुने जाग बहरा है...... 


पी-पीकर भी पानी मैं इतना 

सूखा कंठ लिए हूँ...... 


आज और कल करते करते 

मेरी बातें रही अनकही 

जब तक अपने शब्द बनाऊँ  

तब तक इक्षा के फूल मुरझाएँ ...... 


तेरी जीवन की इस धारा से  

कूछ बूदों का अरमान लिए हूँ ...... 


बैठे-बैठे सांझ हो गयी, 

फिर भी कंठ वही सूखा है 

आशा के पर भी उड़ ना पाये 

यह कैसी है मेरी मजबूरी...... 


 बिछूड़न के इस तट पर  

मैं अमर मिलन की आश् लिए हूँ...... 


पल -पल की ये गर्मी  लू 

मेरे कंठ भश्म कर जायें  

जीवन शांत करने को आतुर  

इस जाग की ये दुर्गम बाधाएँ...... 



जग व्यापी इस प्रलय कल मे 

मैं पूर्ण मिलन का गान लिए हूँ...... 



    उल्लू पांडे